Tuesday, October 21, 2008

मुक्तक 8

पहेली हूँ मुझे सुलझा के देखो
नजदीक से अब आ के देखो
समर्पण में मुझे सीता के पाओ
मुझे हर रूप में दुर्गा के देखो

मुझे इसका गिला कब तक रहेगा
कोई किस दिन मुझे चिट्ठी लिखेगा
जो सुख था प्यार की उन चिट्ठियों में
मज़ा वो दूर-भाषी सुख न देगा

चिराग़ों की चमक खोने लगी है
थकी-हारी गली सोने लगी है
यह किसकी याद ने मुझको छुआ है
बदन में गुदगुदी होने लगी है

यह कैसी ग़ज़ब की जुदाई हुई
रुकी है हँसी लब पे आई हुई
खुशी माँ की सच है तो आँसू भी सच
कि पलभर में बेटी पराई हुई

डॉ. मीना अग्रवाल

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