Friday, February 26, 2010

मुक्तक ३४

दया पे जीना किसी की मुझे गवारा नहीं
मैं अपने आपमें पर्वत हूँ, जल की धारा नहीं
अकेली होके भी दुर्बल नहीं रही हूँ मैं
तुम्हारा साथ मुझे चाहिए, सहारा नहीं !

अलकों से अगर छाए अँधेरे तो क्या
नयनों से जो फूटे सवेरे तो क्या
संसार को कुछ प्रेम का रंग भी तो दे दें
चुनरी ने अगर रंग बिखेरे तो क्या !

होली की अनंत शुभ कामनाओं के साथ--


डॉ. मीना अग्रवाल

Friday, February 12, 2010

मुक्तक 33

वह अपनी आँखों में उमड़ी घटाएँ भेजती है
वह अपने प्यार की ठंडी हवाएँ भेजती है
कभी तो ध्यान के हाथों,कभी पवन के साथ
वह माँ है, बेटे को शुभकामनाएँ भेजती है ।

वे भोली-भाली-सी शक्लें भी साथ रहती हैं
सुनी सुनाई-सी बातें भी साथ रहती हैं
अकेले आए थे परदेस में, मगर यह क्या ?
गली- मुहल्ले की यादें भी साथ रहती हैं .