Friday, March 12, 2010

मुक्तक 36

ये खेत हमने दिए, क्यारियाँ हमीं ने दीं
ज़मीं की गोद को फुलवारियाँ हमीं ने दीं
उदास-उदास-सी चुप से भरा हुआ था घर
तुम्हारे सुनने को किलकारियाँ हमीं ने दीं !

विरह का तीर तुम्हारी कमान छोड़ गई
बिलखती-चीख़ती विरहन की जान छोड़ गई
ज़रा-सा ध्यान जो भटका तो मौलकर चूड़ी
कलाइयों में लहू का निशान छोड़ गई

डॉ. मीना अग्रवाल

1 comment:

अविनाश वाचस्पति said...

सच कहा है

सावधानी में ही सतर्कता है।


हिन्‍दी के मार्ग में वर्ड वेरीफिकेशन रूपी इस अंग्रेजी को आने से रोकिए। डेशबोर्ड में सैटिंग में कमेंट में जाकर वर्ड वेरीफिकेशन को डिसेबल कीजिएगा।